ग़ज़ल
बड़ी मासूम लगती हो..
वो जब तुम अकेलेपन में मुस्कुराती हो,
कुछ सोचती कुछ गुनगुनाती हो,
बड़ी मासूम लगती हो।
तुम्हारी ज़ुल्फें जब तुम्हारे चेहरे पर आती हैं,
वो जब तुम उनको हटाती हो,
बड़ी मासूम लगती हो।
वो जब तुम सहमी सी सदा में कुछ बोल जाती हो,
बेवजह जब तुम चिल्लाती हो,
बड़ी मासूम लगती हो।
वो जब तुम सलीख़े से आकर पर्दे को हटाती हो,
ज़रा कम ही सही मगर जब मुस्कुराती हो,
बड़ी मासूम लगती हो।
जब तुम मेरे ख़्यालों में आती हो,
ख़्यालों में आकर जब चुपके से कुछ कह जाती हो,
बड़ी मासूम लगती हो।
तुम इतना क्यों सताती हो?
मगर जब भी सताती हो,
बड़ी मासूम लगती हो।
राजू
कविता
एक बार मुरझाता सदा के लिए मुरझा जाता
किसी को खुशबु देता
तो किसी को प्यार देता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
महफ़िलों की ज़रुरत होता
कामयाबी की शुहरत होता
मुर्दों की मग़फ़िरत होता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
ऐसा फूल होता
दुनिया को क़बूल होता
ज़िन्दगी में अपना वुसूल होता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
फूलों का इत्र होता
खुशबु का चमन होता
चमन में अमन होता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
किसी के किताबों में होता
किसी के हाथों में होता
तो किसी के सांसो में होता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
मेरा खुश्बू का काम होता
बिछड़ों को मिलाना आम होता
जन्नत में अपना मक़ाम होता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
दिल वालों का सहारा होता
ग़म के मारों का किनारा होता
सब के दिलों का फूल नारा होता
काश मैं इन फूलों की तरह होता
ज़बीउल्लाह आमिर
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